गणतंत्र दिवस संघर्ष और किसान आंदोलन विखण्डन के लिए जिम्मेदार कौन ?

गणतंत्र दिवस के दिन हुए संघर्ष के बाद से सरकार द्वारा जिस तरह किसान नेताओं को पुलिस के माध्यम से प्रताड़ित किये जाने की खबरें लगातार आ रहीं हैं उससे आंदोलन का टूटना, बिखरना एवं विखण्डित होना लगभग तय दिखने लगा था। हालाकि अब यह आंदोलन एक बार फिर से सक्रिय होता दिख रहा है, लेकिन लंबे समय से शांतिपूर्णं एवं सुनियोजित तरीके से चला आ रहा किसान आंदोलन गणतंत्र दिवस संघर्ष से इस कदर बिखर जायेगा, शायद किसानों ने कल्पना भी नहीं की रही होगी ? संयुक्त किसान मोर्चा के 4 संगठन अलग होकर वापस जा चुके हैं। कई लोगों ने आंदोलन के दौरान आत्महत्या की और 64-65 दिन के संघर्ष के दौरान डेढ़ सौ से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है, इसके बावजूद किसान संघर्ष के लिए एक बार फिर लामबंद हो रहे हैं। निश्चित रूप से यह किसानों की जीवटता, त्याग एवं अदम्य साहस का प्रतीक है, जबकि सरकार के द्वारा आंदोलन को किसी भी तरह से खत्म करने के सारे प्रयास हो चुके हैं। सवाल उठता है कि आखिर गणतंत्र दिवस संघर्ष और किसान आंदोलन को विखण्डित करने के षड़यंत्र के लिए जिम्मेदार कौन है ? लालकिला की प्राचीर तक पहुंचने वाले किसके लोग हैं ? गणतंत्र दिवस के दिन लालकिला तक पहुंचने और उपर चढ़कर उत्पात मचाने का साहस क्या देश का आम किसान कर सकता है ? अपर्याप्त पुलिस बल की तैनाती एवं कानून व्यवस्था के मसले पर सवाल खड़ा करना विरोध क्यों हो रहा है ? कुछ समय पहले ही अमेरिका में इसी तरह की घटना हुई थी, लेकिन अमेरिकी मीडिया एवं वहां के नागरिकों ने उसके जिम्मेदार लोगों को इस तरह नकारा और ऐसा संदेश दिया कि वे आज मुख्यधारा से ही अलग-थलग हो चुके हैं, भारत में ठीक इसका उल्टा हो रहा है तो आखिरकार इसके लिए जिम्मेदार कौर है ? सरकार इसके लिए जिम्मेदार क्यों नहीं है ? लोकतांत्रिक एवं गैर-लोकतांत्रिक सभी प्रकार के देशों में सरकार एवं जनता के मध्य अधिकारों, कर्तव्यों, सेवाओं, सुविधाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं रोजी-रोटी आदि मांगों और शर्तों को लेकर संघर्ष, विरोध, प्रदर्शन आदि की घटनाएं होती रहती हैं। सत्ता, शक्ति, ताकतों, सरकारों एवं सत्ताधारी दलों की नीतियों के विरोध में प्रदर्शन, आंदोलन दुनियाभर में होते रहें हैं, होते रहते हैं। इस तरह के संघर्ष, विरोध, प्रदर्शन और आंदोलनों में घटनाएं कई बार हिंसक रूप ले लेते हैं, और ऐसी स्थिति में इस तरह की घटनाओं में जानमाल का भारी नुकसान भी होता है। अमेरिका, चीन, रूस, हांगकांग, कांगो, मिस्र, इजराइल, बर्मा, थाईलैंण्ड, चिली, मैक्सिको, जर्मनी से लेकर फ्रांस तक लगभग सभी महाद्वीपों के सैकड़ों देशों में इस तरह के संघर्ष, विरोध, प्रदर्शनों और आंदोलनों के दौरान प्रदर्शनकारियों एवं आंदोलनकारियों का हिंसक होना एवं कई बार निर्दोष लोगों के मारे जाने की भी घटनाएं देखने, सुनने को मिलती हैं। वास्तविकता यह है कि जहां भी इस तरह की भीड़ होगी, समूह होगा, जनसैलाब होगा; वहां उसे एवं उन्हें नियंत्रित करना एवं अनुशासित बनाये रखना बहुत कठिन काम होता है। अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग से लेकर महात्मा गांधी तक के महान नेतृत्वों द्वारा संचालित आंदोलनों में भी हिंसक झड़पों एवं संघर्षों को रोक पाना असंभव रहा है। भीड़ को कई बार प्रायोजित गुप्त नेतृत्व द्वारा अक्सर हिंसक झड़पों एवं संघर्षों के लिए उकसाकर इस प्रकार तैयार किया जाता है, एवं उसका इस तरह से इस्तेमाल किया जाता है जिससे कि आंदोलन, विरोध एवं प्रदर्शन का असली मकसद ही धूमिल हो जाये, और कई बार संघर्ष का मूल उद्देश्य ही गायब हो जाता है। आंदोलन, विरोध, संघर्ष एवं प्रदर्शन भटककर रह जाता है, टूट जाता है, बिखर जाता है, दिशाहीन हो जाता है। आंदोलन, विरोध, संघर्ष एवं प्रदर्शन के वास्तविक मसले ही गायब हो जाते हैं, या गायब कर दिये जाते हैं। सत्ता एवं सरकार में बैठे लोगों की यही कामयाबी होती है। क्या दिल्ली में बैठी हमारी सरकार यही नहीं कर रही है ? किसान आंदोलन के हिंसक विरोध प्रदर्शन में बदलने के बाद अब इस तरह की संभावनाएं एवं आशंकाएं गहराने लगी हैं कि सरकार अब आंदोलन को खत्म करने में कामयाब हो सकती है। हिंसक प्रदर्शन के नाम पर आंदोलन को दबाना अब सरकार के लिए आसान हो गया है। गणतंत्र दिवस के दिन इस तरह का हिंसक विरोध प्रदर्शन वैसे तो किसी तरह से जायज नहीं ठहराये जा सकते हैं, लेकिन क्या यह एकतरफा है कि दो महीने से अधिक समय तक शांतिपूर्णं ढंग से चलने वाला किसान आंदोलन एकाएक हिंसक कैसे हो गया ? क्या इसमें सरकार की कोई गलती नहीं है ? क्या इसके लिए सरकार दोषी नहीं है ? क्या यह अनुमान या आशंका निराधार है कि मोदी सरकार तो इसी की ताक में थी ? इसी दिन का सरकार को इंतजार था ? क्या दुनिया भर के लोकतांत्रिक एवं गैर-लोकतांत्रिक देशों में जनता की मांगों के लिए इस तरह के विरोध एवं प्रदर्शन नहीं होते हैं ? या लगातार नहीं हो रहे हैं ? क्या यह सही नहीं है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई के नाम पर किसान आंदोलन के असली मुद्दे दबाये जा रहे हैं ? आज दुनिया भर में करीब 165-167 लोकतांत्रिक देश हैं जहां आये दिन सत्ता, सरकार के विरोध में प्रदर्शन, आंदोलन हो रहें हैं। गैर-लोकतांत्रिक देशों तक में सत्ता के विरोध में बड़े-बड़े प्रदर्शन, आंदोलन हुए हैं, होते रहें हैं, हो रहे हैं। ज्ञात हो कि अभी हाल के दिनों में दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों की सूची में भारत 10 स्थान पिछड़कर एवं फिसलकर 32वें से 42 वें क्रम पर चला गया है, और भ्रष्टाचार के मामले पर 6 स्थान पिछड़कर एवं फिसलकर 86वें क्रम पर चला गया है। क्या अब यह सोचने का वक्त नहीं कि हम हमारी नई पीढ़ी के लिए किस तरह के भारत बनाने का सपना देख रहे हैं ? किसानों के आंदोलन, संघर्ष एवं प्रदर्शन को झुकाकर, दबाकर, खत्म करके सरकार कौन सी नैतिक जीत हासिल करना चाहती है ? कृषि, खेतिकिसानी, खेतिहर समाज एवं ग्रामीण जनसमुदाय के साथ हम किस तरह का न्याय कर रहे हैं कि जिनके दम-बल पर जिंदा हैं, उन्हें ही सड़कों पर संघर्ष करता, मरता देखकर चुपचाप तमाशा देखने में आनंदित हो रहे हैं ? -डॉ. लखन चौधरी


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