टीकाकरण : वैश्विक भ्रष्टाचार और छल का इतिहास

भारत समेत दुनिया भर में 2020 की सर्दियाँ आने से पहले ही अनेक सर्वेक्षणों में यह उजागर होने लगा था कि लोग कोविड के टीके को निरर्थक मान रहे हैं। ग़ौरतलब है कि उस समय तक कोविड का टीका नहीं आया था। इसलिए यह सोचना बेमानी है कि टीके के दुष्प्रभावों की ख़बरों ने लोगों पर कोई असर डाला था। बल्कि लोग स्वयं यह महसूस करने लगे थे कि कोविड से होने वाली मौतों के आँकड़े संदेहास्पद हैं तथा इसका संक्रमण होने पर वैसी अफ़रा-तफ़री की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि सरकारें और मीडिया संस्थान बता रहे हैं। अनेक तो यह भी सवाल उठाने लगे थे कि यह महामारी है भी नहीं। सितंबर, 2020 में ही भारत में कोविड की संक्रमण दर (आर फैक्टर) एक से कम हो चुकी था। आर फैक्टर एक से कम हो जाने का अर्थ होता है कि अब एक व्यक्ति अधिकतम एक व्यक्ति को संक्रमित कर रहा है। अगर आर फैक्टर एक से कम हो जाता है, तो उसे महामारी-विज्ञान में महामारी का खात्मा माना जाता है। लेकिन, इसके बावजूद डब्ल्यूएचओ ने इस बारे में चुप्पी साधे रखी और टेक जाइंट्स व सरकारों ने महामारी से संबंधित प्रतिबंध न सिर्फ जारी रखे, बल्कि कथित पीक आने की घोषणा करते रहे। दिसंबर के अंत में भारत सरकार के स्वास्थ्य-कार्यक्रम आयुष्मान भारत के सीईओ डॉ. इंदु भूषण ने भी सवाल उठाया कि संक्रमण की दर (आरओ फैक्टर) भारत के सभी राज्यों में एक प्रतिशत से कम हो गयी है, ऐसे में क्या भारत सरकार को वैक्सीन की ख़रीद पर ख़र्च करना चाहिए? लेकिन उनकी बातों को भी भारतीय मीडिया और सरकार ने रेखांकित करने से परहेज किया। इंदु भूषण स्वयं भी दुनिया के जाने-माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा कोविड की रोकथाम संबंधी कार्रवाइयों में आयुष्मान भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आरओ फैक्टर पूरी दुनिया में पिछले साल ही बहुत कम हो चुका था और कोरोना वायरस के कथित नये स्ट्रेन्स के आने की घोषणा के बावजूद डब्ल्यूएचओ यह नहीं कह पा रहा है कि महामारी की गति तेज़ हो रही है, या मृत्यु दर बढ़ रही है! पिछले कुछ समय से कोविड के वायरस के नये-नये स्ट्रेन आने की सूचनाएँ तेजी से फैलाई जा रही हैं। पिछले दिनों अनेक देशों में इस भय से एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय आवाजाही पर प्रतिबंध तथा आंतरिक तालाबंदी जैसे क़दम उठाए गये हैं। लेकिन इस कथित नये स्ट्रेन की मौजूदगी का अभी तक कोई प्रमाण नहीं है। डब्ल्यूएचओ के पास भी नये स्ट्रेन का कोई वैज्ञानिक आँकड़ा नहीं उपलब्ध है। गत 22 जनवरी को कोविड से संबंधित प्रेस कांफ्रेंस में इस नये स्ट्रेन के बारे में सवाल पूछे जाने पर डब्ल्यूएचओ के अधिकारी बात बदलते नज़र आये। उन्होंने कहा कि वे भी जगह-जगह से इस बारे में सुन रहे हैं और तथ्यों का अध्ययन कर रहे हैं। इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के पूर्व निदेशक और ख्यात वायरोलॉजिस्ट डॉ. टी. जैकब जॉन ने भी कहा है कि अभी तक ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि कोविड पैदा करने वाले विषाणु का कोई नया स्ट्रेन आया है। यह सही है कि मनुष्य को रोगी बनाने वाले वायरस अपना रूप बदल सकते हैं लेकिन इस आशंका को इस क़दर हवा देना सुनियोजित ही है। आख़िर, कोरोना-2 मनुष्य के जीवन में आने वाला न तो पहला वायरस है, और न ही अंतिम। वायरस का प्रकोप मनुष्य जाति के जन्म के पहले से रहा है और इसके बाद भी रहेगा। इस बार कुछ नया है तो वो है इसके बारे में प्रचारित झूठी-सच्ची, अधकचरे ज्ञान संबंधी सूचनाएँ एवं इससे निपटने के लिए अपनाए गये वैश्विक तरीक़े, जिसे डबल्यूएचओ की अगुआई में अंजाम दिया गया। दर-अस्ल, डब्ल्यूएचओ द्वारा कोविड महामारी की घोषणा, इससे संबंधित आँकड़ा जमा करने की पद्धति और इनकी व्याख्या के तरीक़ों पर आरंभ से ही अनेक सवाल उठते रहे हैं। इन सबका असर 8 जनवरी, 2021 को डब्ल्यूएचओ-प्रमुख डॉ. टेड्रोस के बयान में दिखा। डब्ल्यूएचओ के एक्ज़ीक्यूटिव बोर्ड के 148वें सत्र के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि 40 साल पहले एक नया वायरस उभरा और एक वैश्विक महामारी फैल गयी थी। उस समय भी जीवन रक्षक दवाओं का विकास किया गया था लेकिन उन दवाओं को दुनिया के ग़रीब लोगों तक पहुँचने में एक दशक से अधिक समय लग गया था। उसके बाद, आज से 12 साल पहले भी एक नया वायरस उभरा था और एक वैश्विक महामारी फैली थी। उस समय भी जीवन रक्षक टीके विकसित किए गये थे, लेकिन जब तक वे टीके दुनिया के ग़रीबों तक पहुँचते, तब तक महामारी ख़त्म हो चुकी थी। और अब एक साल पहले, एक नया वायरस उभरा तथा एक और महामारी फैली। इस बार भी जीवन रक्षक टीके विकसित किए गये हैं। लेकिन इस बार क्या होता है, यह स्वयं हमारे ऊपर है। यहाँ डॉ. टेड्रोस का यह कहना अजीब है कि - इस बार क्या होता है, यह स्वयं हमारे ऊपर है”। यह एक द्विअर्थी बात है, जिस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । बहरहाल, इस वक्तव्य में डॉ. टेड्रोस का इशारा 1981 में फैले एड्स, और 2009 में फैले एचवन-एनवन (H1-N1) नामक वैश्विक महामारियों की ओर है। एक्ज़ीक्यूटिव बोर्ड में दिया गया उनका यह भाषण अनायास नहीं है। एक्ज़ीक्यूटिव बोर्ड विश्व स्वास्थ्य संगठन के तकनीकी कामों की प्राथमिकता तय करने वाली सर्वोच्च वैधानिक संस्था है। इसमें विभिन्न देशों द्वारा 34 सदस्य नामित किए जाते हैं। (इसी बोर्ड के चेयरमैन अभी भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन हैं।) हर साल जनवरी में होने वाली इस एक्ज़ीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में ही वे एजेंडे तय किए जाते हैं जिसे डब्ल्यूएचओ अपने आगामी एजेंडे वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली में रखता है। वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली में डब्ल्यूएचओ के सभी 194 सदस्य देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं तथा उसके द्वारा अब तक किए गये कामों और योजनाओं की समीक्षा करते हैं। सदस्य देशों की मंज़ूरी मिलने के बाद ही डब्ल्यूएचओ के कामों को वैधानिकता मिल पाती है। इस साल 24 मई से 1 जून तक होने जा रही वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली के बहुत हंगामेदार रहने के आसार हैं। इस असेंबली में डब्ल्यूएचओ पर चीन के प्रति पक्षधरता, कोरोना वायरस के एक जैविक हथियार होने की संभावना और डब्ल्यूएचओ पर बिग फर्मा से साँठ-गाँठ तथा इस पर बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के प्रभाव पर भी सवाल उठने की संभावना है। डॉ . टेड्रोस के भाषण की पृष्ठभूमि को समझ लेने के बाद अब हम देखें कि एड्स और एचवन-एनवन महामारियों के दौरान क्या हुआ है! एड्स फैलने के कुछ वर्षों बाद ऐसी दवाएँ विकसित कर ली गयी थीं जो इस बीमारी को ठीक तो नहीं कर सकती थीं लेकिन जिनके सहारे पीड़ित व्यक्ति लंबे समय तक जीवित रह सकता है। फर्मा कंपनियों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने इन दवाओं को जान-बूझकर लंबे समय तक बहुत महँगा बनाए रखा, जिससे लाखों ग़रीब व मध्यवर्गीय लोग इलाज उपलब्ध होने के बावजूद दवाओं के महँगा होने के कारण असमय ही काल-कवलित हो गये। लेकिन एचवन-एनवन की कहानी वैश्विक साज़िशों की ऐसी कहानी है, जो बड़ी-बड़ी वैधानिक संस्थाओं, बिग फार्मा और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाली परोपकारी संस्थाओं की असलियत को सामने लाती है। छल और भ्रष्टाचार का इतिहास-- जनवरी 2009 में फैले ‘एचवन-एनवन’, जिसे आम बोलचाल में स्वाइन फ्लू कहा जाता है, सबसे पहले मैक्सिको में फैला था। उस समय इंपीरियल कॉलेज, लंदन के सांख्यिकीविद् प्रोफ़ेसर नील फ़र्गुसन डब्ल्यूएचओ की इमरजेंसी कमेटी के सदस्य थे। फ़र्गुसन ने मई, 2009 में अपनी मॉडलिंग के आधार पर घोषणा की कि स्वाइन फ्लू दुनिया की एक तिहाई आबादी को प्रभावित करेगा। उन्होंने 1918 और 1957 में फैली महामारियों से इसकी तुलना करते हुए कहा कि अगर दुनिया के देशों ने तालाबंदी नहीं की तो इससे भारी तबाही हो सकती है। डब्ल्यूएचओ ने भी प्रोफ़ेसर नील फ़र्गुसन की टीम के सुर में सुर मिलाते हुए इसी आशय के बयान जारी किये और कहा कि दुनिया भर में दो अरब लोग इस बीमारी से प्रभावित होंगे। उसके बाद अलग-अलग देशों में विभिन्न संस्थाओं ने प्रोफ़ेसर फ़र्गुसन की मॉडलिंग के आधार पर अपने-अपने पूर्वानुमान जारी किये, जिसमें कहा गया कि इस बीमारी से लाखों-करोड़ों लोग मारे जाएँगे। डब्ल्यूएचओ ने भविष्यवाणी की थी कि स्वाइन फ्लू से मरने वालों की संख्या 20 लाख से 70 लाख के बीच होगी। जबकि कुछ संस्थाओं और नामी-गिरामी महामारी विशेषज्ञों ने कहा कि इससे लगभग 6 करोड़ से 36 करोड़ लोगों के मरने की आशंका है जिससे दुनिया की 11 से लेकर 21 प्रतिशत तक आबादी ख़त्म हो जाएगी। 11 जून, 2009 को डब्ल्यूएचओ ने स्वाइन फ्लू को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया--- इस घोषणा से अमेरिका और यूरोप के कई देशों में तालाबंदी हुई, स्कूल-कॉलेज बंद हुए और अफ़रा-तफ़री का माहौल बना। चूँकि एक दशक पहले सूचनाओं के प्रसार पर टेक जाइंट्स यानी, सोशल मीडिया कंपनियों का आज जैसा एकाधिकार नहीं था, इसलिए इतने भयावह पूर्वानुमानों तथा डब्ल्यूएचओ द्वारा स्वाइन फ्लू को वैश्विक महामारी घोषित करने के बावजूद कोविड जैसी वैश्विक अफ़रा-तफ़री नहीं फैली थी। जनवरी, 2009 में शुरू हुई यह कथित वैश्विक महामारी 19 महीने चली। अगस्त, 2010 में डब्ल्यूएचओ ने इसके ख़त्म होने की घोषणा की। इस बीमारी के कारण मरने वालों की कुल संख्या महज़ 14 हज़ार रही, उनमें से भी अधिकांश वे थे जो पहले से ही किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित थे। हालाँकि डब्ल्यूएचओ ने पूरी कोशिश की कि यह साबित किया जा सके कि लाखों लोगों की मौत इस कथित महामारी से हुई है। लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। डब्ल्यूएचओ की पहल पर उस दौरान दुनिया के कई देशों ने हज़ारों करोड़ डॉलर की वैक्सीन व अन्य चिकित्सा उपकरण ख़रीदे, जो बिना उपयोग के बर्बाद हो गये। क्योंकि तमाम दबावों के बावजूद लोग उन वैक्सीन्स को लेने को तैयार नहीं हुए। जैसा कि ऐसे मामलों में प्रावधान होता है, दवा कंपनियाँ बड़े पैमाने पर वैक्सीन का उत्पादन करने से पहले ख़रीददार देशों से उनकी ख़रीद के लिए क़रार करती हैं। एक बार क़रार हो जाने के बाद उन देशों को निर्धारित मूल्य का भुगतान करना ही होता है चाहे वैक्सीन का उपयोग हो या न हो। भ्रष्टाचार के इस खेल में कई देशों की अर्थव्यवस्था को भारी नुक़सान हुआ, करोड़ों परिवारों ने अनेक परेशानियाँ झेलीं और लाखों लोग अफ़रा-तफ़री मचने तथा अर्थव्यवस्था को हुए नुक़सान के कारण मारे गये। उस समय भी अनेक देशों के प्रमुखों ने अपनी मूर्खताओं, नाकामियों और भ्रष्टाचारों को छुपाने के लिए वैक्सीन को अनिवार्य बनाने की कोशिश की। कई देशों में वैक्सीन नहीं लेने वालों के बहिष्कार और जेल भेजने तक के प्रावधान किए गये। लेकिन अंतत: उन्हें झुकना पड़ा। दवा कंपनियों को भुगतान तो हुआ लेकिन वैक्सीन्स बर्बाद हो गयीं। इसी दौरान, जून, 2010 में पार्लियामेंट्री असेंबली ऑफ़ द कौंसिल ऑफ़ यूरोप (पेस) की रिपोर्ट भी आयी जिसमें फार्मा लॉबी और डब्ल्यूएचओ की साँठ-गाँठ उजागर हो गयी। पेस ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि डब्ल्यूएचओ नामक संस्था एंटी-वायरल और वैक्सीन बेचकर भाग्य बनाने की कोशिश में जुटे ड्रग उद्योग के इशारे पर काम कर रही थी। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) ने भी इससे संबंधित अपनी रिपोर्ट में पाया कि जो विशेषज्ञ डब्ल्यूएचओ को स्वाइन फ्लू से संबंधित नीतियों के बारे में सलाह दे रहे थे उनमें से कुछ का घनिष्ठ संबंध टैमीफ्लू जैसी एंटीवायरल दवा का निर्माण करने वाली कंपनियों के साथ था, जिसे छिपाया गया था। बीएमजे के अनुसार, स्वाइन फ्लू महामारी के लिए टैमीफ्लू नामक दवा को निर्धारित उपचार बताया गया और इस दवा की ख़रीद और भंडारण पर 18 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वैश्विक ख़र्च हुआ। लेकिन चार वर्ष तक लंबे क्लिनिकल परीक्षण डेटा की समीक्षा के बाद पता लगा कि ‘टैमीफ्लू’ नामक दवा स्वाइन फ्लू के इलाज में पैरासिटामॉल से बेहतर नहीं थी। तथ्य बताते हैं कि कमोबेश वही कहानी कोविड के दौरान भी दोहराई जा रही है। पाठक जानते हैं कि कोविड से संबंधित सनसनीखेज़ ख़बरों की शुरुआत भी इम्पीरियल कॉलेज लंदन के इन्हीं प्रोफ़ेसर नील फ़र्गुसन द्वारा जारी मॉडलिंग आधारित पूर्वानुमानों से हुई। लेकिन कम लोग जानते हैं कि कोविड के दौरान भी नील फ़र्गुसन की टीम डब्ल्यूएचओ की संक्रामक रोग मॉडलिंग के लिए सहयोग केन्द्र के रूप में काम कर रही थी और उन्हीं की सलाह के आधार पर डब्ल्यूएचओ ने कोविड के करोड़ों लोगों की मौत के भ्रामक, अतिशयोक्तिपूर्ण पूर्वानुमान जारी किये थे। बहरहाल, यह समझना मुश्किल नहीं है कि जनता की स्वानुभूति और स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया के कारण डब्ल्यूएचओ और फार्मा कंपनियाँ दवाब में आ गयी हैं। उन्हें लग रहा है कि यही स्थिति रही तो लोग कोविड की वैक्सीन लगवाने नहीं आएँगे। इसी कारण आनन-फानन में वैक्सीन्स बाजार में उतारी गयीं। भारत में इसके लिए किस प्रकार की राजनैतिक धक्कम-पेल हुई, किस प्रकार बिना ट्रायल पूरा किये वैक्सीन्स के प्रयोग की अनुमति दी गयी और किस प्रकार वैक्सीन कंपनियाँ अपना-अपना माल बेचने के लिए आपस में भिडीं, यह भी सबने देखा। प्रतिरोधक क्षमता बनाम वैक्सीन--- इसी संदर्भ में पिछले साल बार-बार प्रचारित की गयी एक ख़बर को भी याद कर लेना चाहिए। अगस्त, 2020 में प्रकाशित खबरों में कहा गया था कि भारत के विभिन्न शहरों में 30 से लेकर 50 प्रतिशत लोगों में कोविड-वायरस के विरुद्ध एंटी-बॉडी विकसित हो चुकी है। इस सूचना को यह कहते हुए प्रचारित किया गया था कि कोविड का प्रसार उससे कहीं ज़्यादा है जितना कि उस समय के टेस्ट आधारित आँकड़ों में सामने आ रहा था। इन ख़बरों में दावा किया गया कि कोविड के बढ़ते प्रसार के मद्देनज़र लॉकडाउन को बरक़रार रखना चाहिए, अन्यथा संयुक्त परिवारों में रहने वाले लाखों बुर्ज़ुर्गों की मौत हो जाएगी। पिछले साल अनेक देशों में इस प्रकार के जांच आधारित सर्वेक्षण आधिकारिक संस्थाओं की देख-रेख में हुए थे और सबमें पाया गया था कि बहुत बड़ी आबादी तक कोरोना वायरस फैल चुका है। अगर ये सर्वेक्षण सही थे तो यह तय है कि पिछले साल ही दुनिया की आधी से अधिक आबादी कोविड से संक्रमित होकर ठीक हो चुकी थी तथा उन्हें दोबारा कोविड के संक्रमण का ख़तरा नगण्य है। जनवरी, 2021 में प्रकाशित ऐसे ही एक सर्वेक्षण में कहा गया कि 50 प्रतिशत से अधिक लोगों में एंटी-बॉडी है। दिल्ली सरकार द्वारा 26 जनवरी, 2021 जारी बुलेटिन के अनुसार एक दिन में 64,973 लोगों का कोविड टेस्ट किया गया, जिसमें से महज 157 को कोविड के संक्रमण की पुष्टि हो सकी। जाहिर है, इनमें से भी कम से कम 80 फीसदी को रोग के कोई लक्षण नहीं होंगे। यह ट्रेंड पिछले काफी समय से लगातार बना हुआ है। पॉजिटिवी रेट घट कर महज 0.24 फीसदी तक पहुंच चुका है और इससे लगातार इससे भी नीचे जा रहा है। इतने कम पॉजिविटी रेट को महामारी-विज्ञान में किसी भी प्रकार से महामारी नहीं कहा जा सकता। अखबार और सरकारें चाहे जो कहें। बहरहाल, ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि जिन लोगों का शरीर कोविड के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुका है, उन्हें वैक्सीन लगाए जाने का क्या तुक है? वह भी एक ऐसी वैक्सीन जो हड़बडी में तैयार की गयी है, जिसके लगने से लोगों के मरने की ख़बरें आ रही हैं तथा जिन्हें बनाने वाली कंपनियाँ स्वयं कह रही हैं कि इनके लगने के बावजूद न तो कोविड के संक्रमण से बचाव होगा, न ही यह कहा जा सकता कि यह संक्रमण को फैलने से रोकने में सक्षम है। अभी तक जितनी वैक्सीन्स आ चुकी हैं, वे कोविड होने पर महज़ उसके लक्षणों का असर कम होने का दावा करती हैं, वह भी 60 से 90 प्रतिशत मामलों में ही। बहरहाल, जैसे कि इस कड़ी के लेखों में पहले लिखा जा चुका है कि यह खेल सिर्फ़ वैक्सीन तक सीमित नहीं है बल्कि इस खेल को जारी रखने में उन शक्तियों का हित भी शामिल है जो अर्थव्यवस्था समेत दुनिया के हर संभव कार्य-व्यापार को डिज़िटल मंच पर यथाशीघ्र लाना चाहती हैं। आने वाले समय में यदि आम लोगों और इन शक्तियों के बीच रस्साकशी तेज़ हो तो यह एक शुभ संकेत होगा। -प्रमोद रंजन


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