साहित्य पर सोशल मीडिया का प्रभाव

मोहल्ले के कई अन्य बड़े-बुजुर्ग भी आकर सुनते और अपने-अपने ढंग से चर्चा करते। बरसात के दिनों में देापहर में या शाम को आल्हा का सस्वर वाचन फुल वॉल्यूम के साथ घंटों मोहल्ले वालों के आकर्षण के केंद्र रहता। ट्रेन या बस के सफर में प्रेमचंद, गुलशन नन्दा, प्रेम बाजपेई, चतुरसेन आदि के उपन्यास-कहानियां अथवा धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, माया, सारिका जैसी पत्रिकाएं लोगों के साथ चलतीं। लोगों का बौद्धिक स्तर इस बात से आंका जाता था कि वे किन लेखकों की किताबें या कौन-कौन -सी पत्रिकाएं मंगाते और पढ़ते हैं। आज क्या हुआ? छोटे-बड़े सब एक ही रंग में रंगे जा रहे हैं। घरों से साहित्यिक किताबें गायब हो गई हैं। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं मर रही हैं, जो थोड़ी-बहुत ठीक-ठाक चलती हुई दिखाई दे रही हैं, वे केवल लेखकों और गिने-चुने साहित्य प्रेमी पाठकों के बल पर जिंदा हैं। एक समय में हर पढ़े-लिखे परिवार की अनिवार्य पत्रिकाएं धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका अब इतिहास बन चुकी हैं। आज की पढ़ी-लिखी नौजवान पीढ़ी इन पत्रिकाओं के पुराने अंकों को कौतूहल से देखती है। स्कूल-कॉलेज जाने वाले अधिकांश बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तकों के अलावा दूसरी साहित्यिक कृतियों या साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को देखते तक नहीं, उन्हें पढ़ना तो दूर की बात है। ये स्थितियां एक दिन में नहीं बनी। दूरदर्शन पर जब तक सरकारी नियंत्रण था, आम तौर पर केवल एक चैनल आता था, वह भी सीमित क्षेत्रों में, सीमित अवधि में। उसी पर समाचार, मनोरंजन के लिए कुछ सामाजिक, धार्मिक धारावाहिक और कुछ कृषि, साहित्य, सिनेमा, व्यापार आदि से संबन्धित कार्यक्रम और प्रसारित होते थे। यहां तक तो गनीमत थी। साहित्य की पठनीयता पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। बाजारवाद की अवधारणा के साथ निजी चैनलों के आते ही हम सब बाज़ार में तब्दील हो गए। एक ऐसा बाज़ार, जहां सिर्फ दूसरों की तुलना में अपने आप को अच्छा बताने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा थी। हजारों देशी-विदेशी चैनलों पर इस प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े। चौबीसों घंटे समाचार, विज्ञापन, सीरियल, सनसनी, रहस्य, रोमांच की इस दुनिया ने हमारी पूरी दुनिया बदल दी। जिसकी चकाचौंध और शोर में साहित्य के स्पेस को धक्का पहुंचा। अब जब कि इस कड़ी में, इससे भी आगे सोशल मीडिया तथा अन्य गैजेट भी जुड़ गए हैं तो यह सवाल खड़े होने लाज़िमी हैं कि सोशल मीडिया ने साहित्य को कितना और किस तरह प्रभावित किया है? क्या सोशल मीडिया के दौर में साहित्य के लिए स्पेस क्या पहले की तुलना में बढ़ा है या और कम हो गया है? क्या सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म ने साहित्य के स्तर को हल्का कर दिया है? क्या सोशल मीडिया का साहित्य मुख्य धारा का साहित्य है? क्या सोशल मीडिया का साहित्य, साहित्य के प्रचार-प्रसार में किसी तरह की कोई भूमिका का निर्वहन कर रहा है? क्या सोशल मीडिया के साहित्य से साहित्य का कोइ्र भला हो रहा है? इन सवालों पर लोगों के अपने-अपने जवाब हैं। किन्तु एक मत जो सर्वसम्मत है, वह यह कि इस नए दौर में सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म से सृजनात्मकता को भरपूर बढ़ावा मिला मिला है। इस मंच के बगैर अब साहित्य उसी तरह है जैसे बिना हाथ-पाँव का आदमी। यह भविष्य का माध्यम है। अगर हमें समय के साथ चलना है तो इसकी भाषा सीखनी ही पड़ेगी, इसके साथ चलना ही पड़ेगा। यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो तय मानिए कि वक़्त हमें पीछे छोड़ देगा। अपने लोकतान्त्रिक स्वभाव के कारण सोशल मीडिया आज हर किसी के लिए सहज रूप में उपलब्ध है। युवा वर्ग के लिए तो सोशल मीडिया एक लोकतान्त्रिक स्पेस की तरह आया। पिंट और एलेक्ट्रोनिक मीडिया के वर्चस्व को तोड़ते हुए सोशल मीडिया ने उन सब के लिए अपनी बाहें फैला दीं, जिनकी रचनात्मक प्रतिभा को बरसों से नज़र अंदाज किया गया था। कहना न होगा कि आज सोशल मीडिया ने न जाने कितने लोगों को कवि, लेखक, पत्रकार, संपादक की हैसियत में लागर खड़ा कर दिया है। हर आदमी को लगता है कि मैं भी लिखूं। उसके भीतर एक रचनात्मक ऊर्जा जन्म ले रही है। प्रति-पल बदलती तकनीक के चलते मोबाइल और इंटरनेट पर लिखे जा रहे साहित्य की भाषा भी बदल रही है। यह भाषा किताबों की भाषा में भिन्न है। जो लोग ब्लॉग लेखन में सक्रिय हैं, उन्हें यह बात भी भांति मालूम है। इस प्लेटफॉर्म ने हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने को बिलकुल नई शक्ल प्रदान कर दी है। आज आप साहित्य कया, किसी भी सामाजिक क्षेत्र में सोशल मीडिया को अनदेखा नहीं कर सकते हालांकि यह भी सही बात है कि इस मंच का जितना सदुपयोग हो रहा है, उतना ही दुरपयोग भी। यही कारण है कि आज सोशल मीडिया के मंच पर अच्छे साहित्य के साथ-साथ कचरा साहित्य की भी भरमार हो गई है। किन्तु इसके लिए इस प्लेटफॉर्म का क्या दोष? दोषी तो लिखने वाला है। लेखन अच्छा हो बुरा, लिखने वाले की सोच और चेतना पर निर्भर करता है। अगर कोई अच्छा लिख रहा है, तो वह किसी भी माध्यम से लिखे, अच्छा ही लिखेगा। बल्कि सोशल मीडिया की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उसके माध्यम से उस अच्छे साहित्य को देश-दुनिया के पाठकों के विशाल वर्ग तक पहुंचाया जा रहा है। इसीलिए स्थापित कवि और लेखक अपनी रचनाओं की पठनीयता बढ़ाने के उद्देश्य से उन्हें सोशल मीडिया पर प्रस्तुत कर रहे हैं। हम ऐसे समय में आ चुके हैं जब हमें सोशल मीडिया के सामथ्र्य और सीमा दोनों को समझना होगा। पत्र-पत्रिकाओं की अपनी सीमाएं हैं, किन्तु सोशल मीडिया जैसे मंच की कोई सीमा रेखा नहीं। पूरी दुनिया में कहीं भी बैठकर आप किसी को भी कभी भी पढ़ सकते हैं। सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को मजबूत बनाने के साथ ही ज्ञान का अक्षय भंडार प्रदान कर दिया है। इस प्लेटफॉर्म ने करोड़ों लोगों को वह दे दिया है जो दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाएं कभी नहीं दे सकीं। कोई चाहे तो चौबीस घंटें लगातार अपना लिखा हुआ फेसबुक, व्हाट्सएप, ब्लॉग, ट्विटर, इन्स्टाग्राम पर प्रकाशित करके शेयर कर सकता है, और पलक झपकते ही उस पर पाठकीय प्रतिक्रिया जान सकता है। एक समय था जब अपनी किसी रचना के प्रकाशन के लिए लेखक को प्रकाशकों के यहां महीनों चक्कर लगाने पढ़ते थे। नए लेखकों के सामने तो और भी तमाम मुश्किलें थीं। इसी तरह अच्छे और ईमानदार प्रकाशक भी किसी अच्छे लेखक की तलाश में देश भर में अपनी नज़र दौड़ाते रहते थे। हम किसी पत्र-पत्रिका में अपनी किसी रचना के प्रकाशन का महीनों इंतज़ार करते थे। संयोग से अगर वह रचना कहीं छप भी गई, तो भी यह पता नहीं चलता था कि किसी ने उसे पढ़ा भी है या नहीं। फिर पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार होता था। सोशल मीडिया में आज यह इंतज़ार बिलकुल खत्म कर दिया। हालांकि इसी के साथ रचनाओं के प्रकाशन में एक किस्म की अराजकता भी सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर देखी जा सकती है। हर किसी को लिखने, छपने और प्रसिद्ध हो जाने की जल्दी है। दो मिनट ठहरकर अपने लिखे को दोबारा पढ़ने-समझने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। इस हड़बड़ी और ध्ौर्यहीनता ने सोशल मीडिया के साहित्य को अगंभीर और गैर जिम्मेदार श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर प्रकाशित साहित्य के बारे में यह आरोप अक्सर लगाया जाता है कि यहाँ गंभीर और उच्च गुणवत्ता वाला साहित्य प्रकाशित नहीं होता। यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि सोशल मीडिया का साहित्य तमाम विकल्पों के साथ अपने पाठक को यह अवसर प्रदान करता है कि वह क्या पढ़ना चाहता है। हां, अपनी पसंद का साहित्य पढ़ने के लिए उसे थोड़ी मेहनत ज़रूर करनी पड़ेगी। कचरे को छांटना पड़ेगा। किन्तु यह कचरा कहां नहीं है? छपे हुए साहित्य में नहीं है? अराजकता तो वहां भी है। देखिए कैसी-कैसी पत्रिकाओं में कैसी कैसी रचनाएं छप रहीं है! वैसे भी जब बाढ़ आती है तो बहुत सारा कूड़ा-कचरा बहकर आ जाता है। अत: सोशल मीडिया पर आई साहित्य की इस बाढ़ में बहकर आ रहे कचरे को साफ करने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है। यह काम हमें ही करना होगा, कोई दूसरा नहीं करेगा। सोशल मीडिया ने हमें अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का एक ऐसा मंच प्रदान कर दिया है जहां हम निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपनी बात दुनिया के सामने रख सकते हैं। किसी पर कोई प्रतिबंध नहीं है यहां। अगर आपने अपनी मित्र सूची अपनी वैचारिक समानता और प्रतिबद्धता के साथ बनाई है और आप इस मंच के सार्थक इस्तेमाल के प्रति गंभीर हैं, तो यह मंच आपकी रचनात्मकता, ज्ञान और संवेदना को साझा करने का बेजोड़ साधन है। यहां आप अनगिनत अनजान और अपरिचित लोगों को भी अपने से जोड़ सकते हैं, उन्हें अपना बना सकते हैं। हिन्दी के यूनिकोड ने भी सोशल मीडिया पर लोगों को खुद को अभिव्यक्त करने में महती भूमिका का निर्वहन किया है। जो लोग हिन्दी में टाइप करना नहीं जानते, उनके लिए हिन्दी का यह यूनिकोड फॉन्ट वरदान साबित हुआ है। हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हिन्दी-यूनिकोड के माध्यम से लिखा जाना प्रकारांतर से अंग्रेजी को ही बढ़ावा देना है, किन्तु यहां हमारा विषय हिन्दी के प्रचार-प्रसार और प्रयोग पर चर्चा करना नहीं है। हम तो सिर्फ यह जानते हैं कि सोशल मीडिया पर आई लेखकों और कवियों की बाढ़ में यूनिकोड के प्रयोग ने क्रांतिकारी भूमिका अदा की है। इस प्लेटफॉर्म पर जो उपस्थित है, वही लेखक भी है, संपादक भी है और प्रकाशक भी। उसे किसी खलीपुा या मठाधीश से किसी बात के लिए परमीशन की ज़रूरत नहीं है। दरअसल नई तकनीक के माध्यम से सोशल मीडिया पर साहित्य का एक नया लोकतन्त्र स्थापित हो रहा है। ऐसे में गुणवत्ता प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं कि सोशल मीडिया में प्रकाशित सारा का सारा साहित्य गुणवत्ताहीन या महत्वहीन है। सोशल मीडिया पर होने-भर से कोई रचना न तो महत्वहीन हो जाती है, न ही किसी शानदार कागज़ और कवर वाले किसी ग्रंथ में छापे होने-भर से कोई रचना महत्वपूर्ण हो जाती। यदि ऐसा होता तो बड़े-बड़े सोठ और पूंजीपति सब के सब अपने पैसे के बल पर महान साहित्यकार बन जाते। तुलसी, कबीर, निराला, प्रेमचंद को कौन जानता! महत्वपूर्ण रचना होती है। उसे आप कहीं भी प्रकाशित कीजिये, पढ़ी जाएगी। सोशल मीडिया पर अच्छी रचनाएं उसी तरह पढ़ी और सराही जा रही हैं, जैसे प्रिट मीडिया में पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की अच्छी रचनाएं पढ़ी और सराही जाती हैं। याद रहे, समय की छन्नी कूड़ा-कचरा सब छान कर फेंक देती है। शेष वही बचता है जो शुद्ध है, सार्थक है। साहित्य के साथ भी यही है। चाहे सोशल मीडिया पर लिखा जाने वाला साहित्य हो, अथवा छपा हुआ साहित्य। कुछ विद्बानों की राय में सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा साहित्य भाषा के साथ खिलवाड़ है। वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव सोशल नेटवर्किंग को ध्यान और समय को सोख लेने वाली चिड़िया बताते हुए इसको बहुत गंभीरता से लिए जाने की ज़रूरत पर बल देते हैं। वे कहते हैं कि ये सच है सूचना क्रान्ति के दौर में दुनिया भर की ज्ञान-विज्ञान की किताबें इंटरनेट पर उपलब्ध हैं लेकिन पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। कुछ इसी तरह की राय सिने कलाकार और निर्देशक अरविंद होशी भी रखते हैं। वे कहते हैं- फेसकुब और ट्विटर पर जो लिखा जा रहा है, वह एक तरह से क्षण भंगुर है। हम खानाबदोशों की तरह का लेखन कर रहे हैं। किसी एक विषय पर, ट्रेंड पर लोग टूट पड़ते हैं। फिर किसी और नए ट्रेंड की तरफ चले जाते हैं। ऐसे विद्बानों से पूछा जा सकता है कि प्रिंट मीडिया के दौर में घासलेटी साहित्य और लुगदी साहित्य क्या चीज हुआ करता था? ब्लॉगर अविनाश वाचस्पति कहते हैं कि इंटरनेट और फेसबुक पर रचनात्मकता की नई विधाएं स्थापित हो रही हैं। नए प्रयोग फेसबुक पर संभव हैं। बहुत सस्ते में ही अपनी बात रखने की संभावना हमें फेसबुक ने दे दी है। यह तय है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया अब हमारे समय का ज़रूरी हिस्सा बन गए हैं। ये अच्छे और बुरे दोनों तरह के विचारों के लिए ज़रूरी है। इसलिए बजाय इस से दूर भागने और पेरशान होने से बेहतर है इसे सहर्ष अंगीकृत कर लिया जाय। हमें समय के साथ चलना है तो इसके साथ इसी की भाषा में बोलना, लिखना, बतियाना न सिर्फ सीखना होगा अपितु उसमें अपने आप को कुशल भी बनाना पड़ेगा। एक बात और। छपे हुए साहित्य, विशेष रूप से हिन्दी के संदर्भ में अक्सर यह रोना रोया जाता है कि हिन्दी साहित्य के पाठक नहीं हैं, या बहुत कम हैं। सोशल मीडिया पर प्रकाशित साहित्य ने इस धारणा को बहुत हद तक बदला है। जब भी कोई अच्छी रचना सोशल मीडिया पर आती है, उसकी खूब चर्चा होती हैं। सोशल मीडिया ने साहित्य की पहुंच को बहुत विस्तार दिया है। जिन लोगों को पढ़ने-लिखने में अरूचि थी, वे इस प्लेटफॉर्म पर आकर पढ़ने-लिखने लगे हैं। लोगों में साहित्य को पढ़ने की रूचि बढ़ी है। लोगों ने साहित्य के अलग-अलग विषयों से संबन्धित साहित्यिक समूह बना लिए हैं, जिनके माध्यम से रोजाना रचनाओं का प्रकाशन और उन पर चर्चा के आयोजन होते हैं। साप्ताहिक और मासिक गोष्ठियां आयोजित होती हैं। बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाएं और अखबारों के ई-संस्करण सोशल मीडिया के मंच पर उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से लाखों लोग लिख-पढ़ रहे हैं। अस्तु, कह सकते हैं कि सोशल मीडिया का साहित्य मुख्य धारा का साहित्य अभी भले न बन सका हो, किन्तु साहित्य के विकास में सोशल मीडिया के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। आने वाला कल सोशल मीडिया का है, अत: सोशल मीडिया और साहित्य के रिश्तों को मजबूत बनाने में ही समझदारी है, इस प्लेटफॉर्म से भागना वस्तुत: अपने समय से भागना होगा।


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