भारत-रत्न विश्वेश्वरैया की कर्मठता
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरा करने के बाद वे मुंबई में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुए। शीघ्र की बड़े-बड़े इंजीनियर इनके कार्यों की प्रशंसा करने लगे। उन दिनों सिंध के सक्खर नगर में पीने के पानी की बड़ी समस्या थी। सिंधु नदी के गंदा पानी को साफ करने का कोई प्रबंध न था। विश्वेश्वरैया ने नदी के किनारे पर गहरा कुआं खुदवाया। कुएं की तल से नदी के नीचे तक सुरंग बनवाई। फलस्वरूप कुएं में सदा छना हुआ स्वच्छ पानी भरा रहने लगा। स्वच्छ पानी पाकर लोगों ने राहत की सांस ली। कुछ ही वर्षों में विश्वेश्वरैया सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर बन गये। 19०6 ई. में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। उच्च तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के लिये उन्होंने अमेरिका, कनाडा, स्वीडन, रुस, इंग्लैंड, इटली आदि देशों की यात्रा की। उनके स्वदेश लौटने पर हैदराबाद के निजाम ने उन्हें अपने राज्य का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया। निजाम राज्य में बाढ़ की समस्या से परेशान थे। बाढ़ों को रोकने के लिये विश्वेश्वरैया ने जगह-जगह बांध बनवाए। परिणाम स्वरूप बाढ़ों का आना बंद हो गया और जो पानी व्यर्थ में बह जाता था वह सिंचाई के काम आने लगा। राज्य में हरी-भरी फसलें लहलहाने लगीं। मैंसूर के महाराजा विश्वेश्वरैया के कार्यों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने राज्य का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया। विश्वेश्वरैया ने राज्य में सिंचाई की समस्या हल करने के लिये कावेरी नदी पर कृष्णराज सागर नामक बांध बनवाया। कृष्णराज सागर बांध को देखकर महात्मा गांधी ने कहा था, केवल कृष्णराज सागर ही, जो विश्व में अपने ढंग की एक चीज है इसके निर्माता को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। कृष्णराज सागर बांध निर्माण के समय भारत का सबसे बड़ा बांध था। इससे एक ओर लाखों एकड़ भूमि की सिचाई संभव हुई, दूसरी ओर भरपूर मात्रा में बिजली भी प्राप्त हुई। विश्वेश्वरैया ने इस विशाल बांध के निर्माण का दायित्व संभालकर संसार को यह दिखा दिया कि योग्यता, प्रतिभा तथा परिश्रम में भारतीय इंजीनियर किसी से कम नहीं है। शीघ्र ही महाराजा ने उन्हें मैसूर राज्य का दीवान बना दिया। विश्वेश्वरैया ने राज्य में शिक्षा की उन्नति के लिये मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना की। उन्होंने उद्योग धंधों को बढ़ावा दिया और भद्रावती नगर में इस्पात का एक कारखाना खुलवाया। एक बार डॉ. विश्वेश्वरैया रेलगाड़ी से सफर कर रहे थे। जिस डिब्बे में वे बैठे थे, उसमें अधिकतर यात्री अंग्रेज थे। डॉ. विश्वेश्वरैया साधारण वेशभूषा में थे। इसलिये अंग्रेज उन्हें मूर्ख और अनपढ़ समझ कर उनका मजाक उड़ा रहे थे। लेकिन वे किसी की बात पर ध्यान न देकर गंभीर मुद्रा में बैठे थे। अचानक उन्होंने गाड़ी की जंजीर खींच दी। गाड़ी तुरन्त रुक गई, सभी यात्री उन्हें भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड बाबू भी आ गये। गार्ड बाबू ने पूछा, जंजीर किसने खींची है। डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, मैंने खींची है। कारण पूछने पर उन्होंने बताया, मेरा अनुमान है कि यहाँ से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है। गार्ड बाबू ने पूछा, आपको कैसे पता चला। डॉ. विश्वेश्वरैया ने कहा, श्रीमान मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है। पटरी से गूंजनेवाली आवाज से मुझे खतरे का आभास हो रहा है। गार्ड बाबू जब उनको साथ लेकर कुछ दूरी पर पहुंचे तो वे यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये कि वास्तव में एक जगह पर रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट बिखरे पड़े हैं। जब यात्रियों को पता चला कि जंजीर खींचने वाले व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उन लोगों की जान बच गई तो वे सब उनकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड बाबू ने डॉ. विश्वेश्वरैया से पूछा, आप कौन हैं? तो वे बोले, मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है एम. विश्वेश्वरैया। नाम सुनकर सभी लोग स्तब्ध रह गये। यात्री लोग उनसे क्षमा मांगने लगे। शान्त भाव से डॉ. विश्वेश्वरैया ने कहा, आप सबों ने मुझे जो कुछ भी कहा था, वो मुझे किल्कुल याद नहीं है। वे सौंदर्य प्रेमी इंजीनियर थे। उन्होंने कृष्णराज सागर के किनारे एक बहुत सुंदर बाग लगवाया जो वृंदावन बाग के नाम से प्रसिद्ध है। वे श्रेष्ठ मानवीय गुणों की साकार मूर्ति थे। वे बड़े सलीके से यूरोपीय वेशभूषा धारण करते थे, किन्तु सिर पर हमेशा भारतीय पगड़ी बांधते थे। एक बार वे बंगलुरू की भीड़भरी सड़क से बग्गी में गुजर रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि पैदल जा रहे चिक बल्लापुर स्कूल के सेवनिवृत्त अध्यापक श्रीकृष्णगिरि राघवेन्द्र राव पर पड़ी। बग्गी से उतर कर उन्होंने अपने पूर्व अध्यापक को अत्यन्त नम्रतापूर्वक प्रणाम किया। लेकिन श्रीकृष्णागिरि जी कीमती वस्त्र पहने डॉ. विश्वेश्वरैया को पहचान नहीं पाये। तब डॉ. विश्वेश्वरैया ने अपना परिचय देते हुए कहा, शायद मुझेआपने नहीं पहचाना, गुरु जी। मैं आपका पुराना विद्यार्थी विश्वेश्वरैया हूं। कृष्णागिरि जी अपने विनयी शिष्य को हर्षपूर्वक गले लगा लिया। देश के नवनिर्माण की योजनाओं में डॉ. विश्वेश्वरैया की गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने देश में उद्योगों की उन्नति के लिये अखिल भारतीय निर्माता संघ की स्थापना की। 1962 ई. में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने सुझाव दिया कि गंगा पर पुल बनाने के लिये डॉ. विश्वेश्वरैया विभिन्न राज्य सरकारों के प्रस्तावों की जांच करें। पंडित नेहरु ने यह कहकर उन्हें चुना कि वे ईमानदार, चरित्रवान व उदार राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले इंजीनियर हैं, जो पक्षपात रहित निर्णय ले सकते हैं, स्थानीय दबावों से ऊपर उठकर कार्य कर सकते हैं और उनके विचारों का सबलोग सम्मान करते हैं एवं वे सब उनको स्वीकार करते हैं। उस समय डॉ. विश्वेश्वरैया करीब 92 वर्ष के थे। पुल बनाने के लिये सही स्थल को चुनने के लिये उन्होंने कॉकपिट में सह पायलट की सीट पर बैठकर नदी के तटों का बारीकी से हवाई सर्वेक्षण किया। इस दौरान वे पटना में रुके। साइट पर कार में जाना संभव नहीं था। तपती धूप में वे पैदल ही साइट पर गये। वे किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 98 वर्ष की उम्र में वे प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। जीवन के अंतिम क्षण तक वे काम करते रहे। उनका कहना था, जंग लग जाने से बेहतर है काम करते रहना। एक व्यक्ति ने एक बार उनसे पूछा आपके चिर यौवन का रहस्य क्या है? डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, जब बुढ़ापा मेरा दरवाजा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं हैं और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है? उन्हें विलक्षण प्रतिभा के कारण विश्वभर में ख्याति मिली। अंग्रेज सरकार ने राष्ट्रहित में उनके द्बारा की गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं के लिये उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया। उनकी सौवीं वर्षगांठ पर सरकार ने उनके नाम का एक डाक टिकट चलाया। 14 अप्रैल 1962 ई. को इस महामानव का देहावसान हो गया। वे कहा करते थे, अकर्मण्य व्यक्ति दीर्घजीवी नहीं हो सकता। अकर्मण्यता जीवन की जड़ काटती है। वे आजीवन देश के सर्वांगीण विकास का प्रय‘ करते रहे। वे सच्चे देश सेवक थे।
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