भारत में लैंगिक और जातिगत असमानता

ऐसा सिर्फ उद्योग की वजह से नहीं हो रहा है बल्कि सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव और वर्षों से चले आ रहे एकाधिकार की वजह से भी हो रहा है| जमीन पर उद्योग लगाने के दबाव से आदिवासियों को जमीन का हक मिलना मुश्किल हो गया है| पारिवारिक संपत्ति बंटवारे में महिलाओं को उनका हिस्सा दिलाने में भी भूमि सुधार असफल रहा|" एएनजीओसी ने हाल ही में फिलीपींस, भारत और बांग्लादेश सहित एशिया के आठ देशों में सर्वे किया| इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि भूमि सुधार कानून, जो आदिवासियों और महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देता है, पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया| जमीनों का फिर से सही तरीके नहीं बांटा गया| मार्केज कहते हैं कि जब भी आदिवासी लोग जमीन पर दावा करते हैं, प्रायः उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है| ब्रिटेन स्थित ग्लोबल विटनेस की रैंकिंग में पिछले साल फिलीपींस को भूमि सुधार कार्यकर्ताओं के लिए सबसे खतरनाक देश बताया गया| भारत में जमीन का मालिकाना हक ज्यादातर पुरुषों के नाम होता है| जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में काम करने वालों में महिलाओं की भागीदारी एक तिहाई है लेकिन उनके नाम पर मात्र 13 प्रतिशत ही जमीन है| ध्यातव्य है कि देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदुओं की है| 2005 में हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम में संशोधन किया गया| महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए| लेकिन तमाम कानूनों के बावजूद सामाजिक प्रथाओं और परंपराओं की वजह से भारत में आज भी महिलाओं को अधिकार नहीं मिल पा रहे हैं| ऐसी मानसिकता बनी हुई है कि जमीन पुरुषों के नाम पर ही होनी चाहिए| नौकरी के लिए पुरुषों का शहरों में पलायन बढ़ने की वजह से पूरे एशिया में कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बढ़ी है| लेकिन अभी भी जमीन का मालिकाना हक महिलाओं के नाम नहीं के बराबर हुआ है| महिलाओं पर शादी के समय अपनी पैतृक संपत्ति को छोड़ने का दबाव भी बनाया जाता है| भारत में दलित और आदिवासियों को जमीन के मालिकाना हक से दूर रखा गया है| इसकी की वजह है सामाजिक पूर्वाग्रह की गहरी जड़ें| भारत में जाति के आधार पर भेदभाव पर 1955 में कानूनी रोक लगा दी गई थी इसके बावजूद यह जारी है| भारत में दलित समाज के करीब आधे लोग भूमिहीन हैं| जबकि ऐसे कानून अस्तित्व में हैं कि भूमिहीनों को भूमि दी जा सके पर उसके बावजूद उनके पास इतनी कम जमीन है| यह बड़ी विडंबना है|


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