केंद्र में नरेंद्रमोदी की नयी सरकार के सौ दिन!
अनुच्छेद 37० जम्मू-कश्मीर के संबंध में संसद की विधायी शक्तियों को प्रतिबंधित करता है। अधिमिलन पत्र में शामिल किये गये विषयों से संबंधित किसी केंद्रीय कानून को जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए राज्य सरकार का परामर्श जरूरी है। तथ्य यह है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद अधिमिलन पत्र लाया गया था जिसमें लगभग 6०० रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का प्रस्ताव दिया गया था। भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय इसी अधिमिलन पत्र की तय शर्तों के ज़रिये हुआ था। अधिमिलन पत्र में लिखित शर्तों के मुताबिक वायदों के पालन में अगर किसी पक्ष द्बारा इनका उलंघन होता है तो दोनों ही पक्ष अपनी शुरुआती स्थिति में लौट सकते हैं। यहां इस सवाल का उठना लाजिमी है कि नरेंद्र मोदी जिस उपलब्धि को ले स्वयं ही अपनी पीठ थपथपा रहे, उसका परिणाम आना अभी बाकी है। अनुच्छेद 371 और 35ए को अप्रभावी बनाये जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर के हालात बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं। वहां की फ़िज़ा में तनाव है। बेचैनी है। आक्रोश है। अलगाववादी तत्त्वों को अगर हम नजरअंदाज कर दें तब भी जो लोग अबतक इस भू-भाग को भारत गणराज्य का अभिन्न हिस्सा मानते आ रहे थे वे भी केंद्र सरकार के इस क़दम से सिर्फ मर्माहत ही नहीं,बल्कि सशंकित हैं। केंद्र सरकार द्बारा जम्मू-कश्मीर में बड़ी संख्या में सशस्त्र बलों की तैनाती और इसके साथ ही मुख्यधारा के लेखक, बुद्धिजीवी सामाजिक कार्यकत्ताã एवं नेताओं की गिरफ्तारी व नजरबंदी से जम्हूरियत एवं इंसाफ़पसंद अवाम बेहद खफ़ा है। अपने ही नागरिकों के साथ ऐसा सलूक! ज़ाहिर है गणतांत्रिक मूल्यों एवं संविधान पर यह एक खुला हमला है। अनुच्छेद 371 और 35 ए को प्रभावहीन बनाये जाने के पहले केंद्र सरकार को जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली करना चाहिए थी। संविधानप्रदत्त नागरिक अधिकारों का बर्बरतापूणã दमन कतई राष्ट्रप्रेम नहीं है। सूचना के अधिकारों का हनन अथवा हरण फासीवाद के बढ़ते क़दम की आहट है, निकट भविष्य में किसी बड़े उथल-पुथल व रक्तपात का सूचक भी। राज्य की बर्बरता के आगे जम्मू-कश्मीर की चीख़ शायद दबती जा रही है। और अवाम धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ते जा रहा। अब ज़रा देश की अर्थनीति की पंचर होते हालात पर गौर करें! आज देश का विकास दर सर्वाधिक निचले पायदान पर पहुंच गया है। खुद अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आइएमएफ) के प्रवक्ता गौरी राइस के अनुसार भारत के विदेशी बाजार में तेजी से गिरावट देखी जा रही है। खासतौर पर निर्माण एवं कृषि के क्ष्ोत्र में यह गिरावट दिख रही है। इस मंदी का शिकार सबसे ज़्यादा आटोमोबाइल सेक्टर रहा है जहां अभी तक 3.7० लाख कर्मचारियों की छंटनी हो चुकी है। कृषि के क्षेत्र में भी भारी निराशा छायी हुई है। पिछले पांच साल के दौरान किसानों की आय को दोगुना करने के वादे को मोदी सरकार नहीं निभा पायी। कर्ज भार से दबे किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। किसानों के गहराते जख़्म पर मरहम लगाने को ले केंद्र सरकार ने पिछली क्षतिपूर्ति के नाम पर सालाना 12०००/- रुपये किसान मानधन योजना लेकर आयी जो किसानों के संकट के सामने ऊं ट के मुंह में जीरा के समान है। दूसरा वादा था साल में एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वह भी पूरा नहीं हुआ। बल्कि इसके विपरीत बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है। परिणामत: बाजार में ख़रीदारों की घटती संख्या के कारण वस्तुओं की मांग में तेज़ी से गिरावट देखी जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था का मंदी के चक्रव्यूह में फंसने का यह एक बड़ा कारण है। अक्षम लोग केंद्र सरकार में भरे पड़े हैं। जिसे शिक्षा की समझ नहीं वह शिक्षामंत्री है। जिसे वित्त की सम्यक समझ नहीं वह वित्तमंत्री है और जिसे अर्थनीति का ज़रा भी ज्ञान नहीं है, वह रिजर्व बैंक का गवर्नर है। हिन्दू-मुसलमान और गाय-गोबर पर अब देश की राजनीति आकर ठहर गयी है। जयश्रीराम के नाम पर और हिन्दुत्व को लेकर भाजपा शोर मचाये हुए है। रंग-नस्ल धर्म-उन्माद को हवा देते रहना मानो वर्तमान सरकार का एजेंडा हो। सच तो यह है कि केंद्र सरकार के पास देश को गंभीर आर्थिक संकट से बाहर निकालने का कोई कारगर तरीका या समझ नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के समय ही कहा था कि सरकार के इस दुस्साहसिक क़दम का असर आने वाले दिनों में दिख्ोगा और वह असर अब दिखने भी लगा है। इस संबंध में रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन एवं अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी सरकार को चेताया था। नोटबंदी से देश का कालाधन तो वापस नहीं ही आया बल्कि लाखों की तादाद में लघु व मझोले उद्योग-धंधे हो गये। बड़ी संख्या में कर्मचारियों ने तो अपनी नौकरी गंवाई ही, हजारों-लाखों उद्यमियों तक की जिन्दगी तबाह हो गयी। नोटबंदी के दौरान बैंकों की कतार में घंटों खड़े रहने और धक्कम-पेल से अनेक लोगों की जानें गयीं। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गलत व तुगलकी निर्णय का ही यह एक नतीजा था। अफसोस की बात तो यह है कि उन्हें आज तक मुआवजे के लायक तक नहीं समझा गया। विकास के सभी मोर्चों पर नाकाम रहने के बाद राजग सरकार के पास ले देकर रामजन्मभूमि, तीन तलाक और जम्मू-कश्मीर का विश्ोष दर्जा समाप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा का राग अलापने वाली राजग सरकार कांग्रेस-शासन के आपातकाल से भी भयानक शासन का नमूना पेश कर रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मानवाधिकार के दमन के मामले में यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी कई कदम आगे चल रही है। धार्मिक-उन्माद और उग्र राष्ट्रवाद की भावनात्मक लहर पैदा कर यह सरकार लोगों को उनकी बुनियादी ज़रूरतों के सवालों से काट कर अलग करने में काफी हद तक सफल रही है। बड़े पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हित साधन में यह सरकार पूरी तरह लिप्त है। प्रकृति-प्रदत्त संपदा जल-जंगल और जमीन पर इसकी गिद्ध दृष्टि है। जिस जल, जंगल और जमीन को युगों से गरीब किसान और आदिवासी अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाये हुए थे, उसे मोदी सरकार बलात अधिग्रहण कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने की दिशा में तेज़ी से अग्रसर है। लंपट पूंजी और उग्र राष्ट्रवाद इस सरकार की ताकत है। अशिक्षा और कुसंस्कार इसकी विरासत है। विज्ञान विरोधी मिथ को गढ़ने और प्रचार करने में नरेंद्र मोदी को महारत हासिल है। मोदी के झूठ को सच साबित करने के सियासी खेल में कॉरपोरेट मीडिया निरंकुश सत्ता के साथ एकमेक हैं। आम-अवाम के मगज़ में सुनियोजित एवं सुकल्पित तरीके से कचरा भरा जा रहा है। मानो, देश में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। वह कोई अवतार हैं। उनके पूर्वजन्म के किस्से भी सोशल मीडिया के मार्फत प्रचारित किया जा रहे हैं। अंधविश्वास एवं अंधभक्ति को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। अवैज्ञानिक सोच पैदा किया जा रहा है। मुस्लिम कौम को सबक सिखाया जाना और पाकिस्तान को दुनिया के मानचित्र से हमेशा-हमेशा के लिए मिटाया जाना जैसे भ्रामक एवं हिंसक क्रिया-कर्म मोदी है तो संभव है!! फिरकारस्ती और नस्लीय हिंसा में आज इस्लामी पाकिस्तान जहां खड़ा है मोदी का हिंदू भारत उससे भी आगे निकलने की दौड़ में शामिल है। जहां पाकिस्तान अपने नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित कर पाने में अक्षम है, वहीं भारत भी दौड़ में शामिल है। पाकिस्तान जहां इस्लामी आतंकवाद की आड़ लिए खड़ा है वहीं भारत उग्र हिन्दुत्व के सहारे खुद को खड़ा करना चाहता है। निरंकुश सत्ता को वजूद में बनाये रखने के लिए यह उग्रता जरूरी है। अंंधआवेग की ज़रूरत है। इन दोनों मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों लिए यह माहौल बनाये रखना उनके हित में है। लेकिन आम जनता के हित में यह नहीं है। दोनों मुल्कों की आम जनता के लिए जीवन के बुनियादी सवाल अधिक जरूरी हैं ताकि जीवन की निश्चयता बनी रहे। और यह तभी सम्भव है जब देश में सुख-समृद्धि और शांति का माहौल हो। इसके लिए यह ज़रूरी है कि लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बची रहे। लेकिन आज मोदी सबसे बड़ा हमला भारतीय लोकतंत्र और संविधान पर ही कर रहे हैं, जो सुनियोजित है। देश के आर्थिक हालात का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 84 साल के इतिहास में पहली बार आरबीआई के आपात् कोष से मोदी ने राहत पैकेज के नाम पर 1.76 लाख करोड़ रुपये लिए। पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल और रघुराम राजन केंद्र सरकार की इस मांग का पहले ही विरोध कर चुके हैं। यहां तक नोटबंदी के सवाल पर भी रघुराम राजन, मोदी से सहमत नहीं रहे। उनकी असहमति जग जाहिर है। आरबीआई जैसी एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण सरकारी संस्था की स्वायत्तता को ताक पर रखकर सरकार ने जो किया इसके दूरगामी दुष्परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते हैं। आज मोदी का सारा ध्यान जनता के प्रतिरोधी स्वर को कुचलने पर केंद्रित है। साधारण लोगों के साथ ही देश के सुविख्यात बुद्धिजीवियों और अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक बताकर जेल में बंद कर दिया गया है। भारी जनआंदोलनों के दबाव में कांग्रेस सरकार ने जिस आरटीआई कानून बनाया था, नरेंद्र मोदी ने एक ही झटके में नागरिकों के सबसे बड़े हथियार अर्थात सूचना के अधिकार को कमजोर बना दिया। दरअसल मोदी नहीं चाहते हैं कि सरकार के भ्रष्टाचार की मुकम्मल सूचना जनता को मिले। सच कहा जाय तो हिन्दू राष्ट्र की घुSी तैयार की जा चुकी है जिसे देश की जनता को आहिस्ते-आहिस्ते पिलायी जा रही है। देश जर्मनी के उस दौर की याद दिला रहा है जब 193० में उग्र राष्ट्रवाद ने नाजीवाद की शक्ल में एक जाति, एक राष्ट्र, एक भाषा और एक नेता की अवधारणा का प्रचार किया और एडोल्फ हिटलर को एक अवतार के रूप में स्थापित किया। मानो, एक मात्र हिटलर ही जर्मन-जनता का मुक्तिदाता हो। ज़ाहिर है हिटलर की नस्लीय राजनीति को अपना आदर्श बनाकर जर्मन राष्ट्र एक नेता के आह्वान पर चल पड़ा था जिसका परिणाम रहा द्बितीय महायुद्ध और महाविनाश। हम अब तृतीय महायुद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। दुनिया का बदलता परिदृश्य इसी का तो संकेत है। और हम अनिर्णय की स्थिति में अधिक देर तक मौन नहीं रह सकते!
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